जिस्मों के बाजार में अपने आपको खड़ा करते हो,
फिर सजा कर सवार कर, अपने आपको वहाँ पेश करते हो।
वजूद पर अपने बड़ा नाज करते हो,
खुदा भी समझ नहीं पाता, के अपने आपको क्या समझते हो।
मीट्टी के एक ढेरे को न जाने कैसे कैसे तराशते हो,
पल में खाक हो जाये ऐसे जिस्म को तुम अपने आप कहते हो।
कह दे अगर कोई कुछ, तुम तो चीखते हो चिल्लाते हो,
घूरती हुई नजरों से फिर उसपर वार हजार करते हो।
अपने आरजुओं के दामन को बढ़ाते जाते हो,
न संभलने पर फिर तुम हैरान परेशान रहते हो।
बेजार जब होते हो, दर खुदा का ढूंढते हो,
हो जाए पूरी आरजू तुम्हारी, इसलिये बिनती बार बार करते हो।
समझ के समझ नहीं पाते आखिर तुम क्या चाहते हो,
बढ़ा के चाहते अपनी अक्सर राह से सदा भटकते हो।
अपनेपन की भावना लेके फिर फिरते हो,
खुद तो अपना न सके किसीको, अपनाए सब तुम्हें, तुम यही चाहते हो।
खुदगर्जी के दौर से बाहर आ नहीं पाते हो,
इलजाम उसका दुनिया पर लगाते हो ,
समझके समझ नहीं सकते क्या तुम चाहते हो ।
- संत श्री अल्पा माँ